सुदूर - अध्याय दो : मिरबर्ग


सुदूर - अध्याय एक : होश में अब तक आपने पढ़ा कि कैसे एक रहस्यमयी शख्स - जिसे अपने दिमाग में किसी धमाके की गूंज सुनाई दे रही है - उसे एक अनजान जगह पर होश आता है। वहाँ उसकी मुलाकात मैक्सिम नाम के एक रशियन डॉक्टर से होती है जो उसे बताता है कि वह अनजान जगह मिरबर्ग, रशिया है। उस रहस्यमयी शख्स के मन में हजारों सवाल हैं जो वह पूछना चाहता है पर वह फिर से बेहोश हो जाता है। अब आगे....


उसके घर में पकवान बन रहे हैं, आज कृष्ण जन्माष्टमी का दिन है। हालाँकि वह खुद एक साइंटिस्ट है और वह इस तरह के पूजा-पाठ से दूर ही रहता है पर बचपन में वह काफी धार्मिक हुआ करता था। वह अलग-अलग तरह के धार्मिक सीरिअल्स देखा करता था और साथ-ही हर तरह की धार्मिक पुस्तकें पढ़ा करता था। वह हमेशा से भगवान विष्णु को पाना चाहता था या यूँ कहें की उनकी तरह बनना चाहता था। शुरू से ही उसके दिमाग में यह बात थी की कोई एक ही है जो हम सभी से ज्यादा शक्तिशाली है परन्तु उसका अस्तित्व भी हमसे किसी-न-किसी तरह जुड़ा हुआ है। बचपन में ही हिन्दू धर्म के काफी ग्रन्थ पढ़ने के बाद और बी आर चोपड़ा और रामानंद सागर के सीरिअल्स महाभारत और रामायण देखने के बाद उसकी हिंदी बड़ी ही अच्छी हो गयी थी। अब जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो उसने बाइबिल भी पढ़ी और विभिन्न यूनानी कहानियों का भी स्वाद चखा। उसे समझ आने लगा की हर धर्म के लोग अलग-अलग नामों और अलग-अलग स्थानों की बात करते हैं लेकिन, वे जिनकी बात करते हैं, वो कोई एक ही है। थोड़े और बड़े होने पर उसकी रुचि विज्ञान की ओर बढ़ती चली गयी और अब वह हर बात को तर्क के तराजू में रखकर तौलने लगा। उसने देखा की वैज्ञानिक सोच उसे दुनिया के सभी धर्म के लोगों को एक नजर से देखने को कहता है और लोगों को ही क्या ये तो उससे कहता है की सारा विश्व, सारा संसार, ब्रह्मांड सब कुछ एक ही है। उसे यह बात अच्छी लगने लगी और उसने ठान लिया की यही सबसे सच्चा धर्म है। उसने पढ़ाई की और वैज्ञानिक बन गया। आज उसके घर में लोग कृष्ण जन्माष्टमी मना रहे हैं। बचपन से लेकर आजतक यह त्योहार जब भी आता है, एक अलग ही उत्साह, अलग ही खुशी उसके चेहरे पर आ जाती है। लेकिन, एक बात है जो बचपन में अलग हुआ करती थी और अब अलग हुआ करती है। बचपन में उसके घर में जो भी रीति-रिवाज़ निभाये जाते थे उन्हें आंख मूंदकर बिना समझे मनाया जाता था क्योंकि, घर के बड़े वैसा ही करते आये थे। अब वे सिर्फ उन्हीं रीति-रिवाजों को मनाते हैं जो विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते है और जो तार्किक हैं। कुछ पुराने रीति-रिवाजों को दरकिनार कर दिया गया है और कुछ बेहद नए और दिलचस्प रिवाजों की शुरुआत की गयी है। इन्हीं नए रिवाजों में से एक है, धार्मिक पुस्तकों के तार्किक मर्म को समझना। कई बार क्या होता है कि हम कहना कुछ चाहते हैं और कहते कुछ हैं। ऐसे में सुनने वाले को समझना पड़ता है कि बोलने वाले ने कहा क्या है। ठीक यही बात इन पुस्तकों पर भी लागू होती है। इन पुस्तकों के तर्क को समझने में गांव के जिस व्यक्ति का साथ उसे मिलता है वो हैं हरीश यादव। हरीश यादव उससे काफी बड़े हैं और उन्होंने अपनी शिक्षा भी पूरी नहीं की है परन्तु तर्क की कसौटी पर वो अच्छे-अच्छों की पतलून उतार देते हैं। आज हरीश जी के साथ काफी चर्चा करने के बाद उसने सोचा क्यूँ न हरीश जी को उनके घर तक छोड़ कर आया जाए। वे निकल पड़े एक-दूसरे से बातें करते हुए। दोनों के चर्चा का विषय था हरीश की आठ साल की बेटी जो दिन-ब-दिन मोटी होती जा रही थी। उसका अपने खाने की आदतों पर काबू नहीं था, घर के स्वादिष्ट खाने की बजाय वह बाहर के चटपटे खानों की दीवानी थी। दोनों की चर्चा इसी बात पर चल रही थी कि क्या-क्या बदलाव करने से उसकी सेहत पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। दोनों बात करते-करते वसुंधरा चाची के घर के पास पहुंच गये। शाम का वक्त था तो वसुंधरा चाची गायों को बांध रही थीं। उन्होंने जैसे ही दोनों को देखा तो आवाज लगाते हुए कहा, "हरीश भाई साहब! ध्यान से आदि से तर्क कीजियेगा, बड़ों-बड़ों को चुप करा देता है ये!" आदि ने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया, "वसुंधरा चाची! आप इनकी फिक्र न कीजिये, इनके तर्क तो आजकल मुझपर भी भारी पड़ जाते हैं!" इतना सुनते ही वसुंधरा चाची मुस्कुरा बैठीं और वापस अपने गायों को बांधने लगीं। आदि ने देखा की कुछ ही दूर में एक काले रंग का बवंडर धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था और वसुंधरा चाची के घर की ओर बढ़ रहा था। वह वसुंधरा चाची को आवाज लगाता हुआ उनकी तरफ दौड़ा। पर उसे देर हो चुकी थी। उस बवंडर ने बहुत ही जल्द एक विशालकाय रूप ले लिया और वसुंधरा चाची के घर के परखच्चे उड़ा दिए। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। आदि पीछे मुड़ा उसे हरीश भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। आदि का दिमाग सुन्न पड़ गया था। उसे मौत की आहट सुनायी दे रही थी। उसने घर की तरफ दौड़ लगा दी परन्तु उसके चौथे कदम के आगे बढ़ने से पहले ही मौत के उस काले साये ने उसे घेर लिया था। उसका दम घुट रहा था और तभी उसकी आंख खुल गयी। वह उठते ही अपने बिस्तर पर बैठ गया। उसने देखा उसके सामने डॉ मैक्सिम खड़े हैं।


वह पसीने से लथपथ हो चुका था। डॉ मैक्सिम उसके पास आये और वे कुछ पूछने ही वाले थे कि उससे पहले ही उसने कहा, "डॉक्टर मुझे याद आ गया है! मेरा नाम आदि है!" 


मैक्सिम ने उसे पसीना पोंछने के लिए टॉवल दिया और उसके पास आकर बैठ गये। उन्होंने पूछा, "ठीक से बताओ। तुम्हें क्या-क्या याद आया है?"


आदि ने उन्हें सारा वाक्या कह सुनाया। सारी बात सुनने के बाद डॉक्टर ने आदि से कहा, "आदि! पहले तुम नहालो उसके बाद साथ में बैठकर खाना खाते हैं।"


आदि ने हाँ में सिर हिलाया और खाना खाने के बाद डॉक्टर मैक्सिम ने उसे बताया, "आदि! मुझे पता है कि मुझे तुम्हें यह बात अभी नहीं बतानी चाहिए क्योंकि, तुम अभी भी अपने जख्मों से पूरी तरह उभरे नहीं हो। फिर भी, यह जानना तुम्हारे लिए बहुत जरूरी है कि तुम जो कहानी सुना रहे हो वह सच नहीं हो सकता।" 


आदि को कुछ समझ में नहीं आया। वह पूछ बैठा, "क्यूँ?"


"क्योंकि तुम जो कहानी तुम सुना रहे हो वो Earth (धरती) की है जिसे छोड़े हमें 300 से ज्यादा साल हो गये हैं।"


"ऐसा नहीं हो सकता। डॉक्टर याद कीजिये आपने इस जगह को मिरबर्ग, रशिया बताया था!"


"हाँ मैंने बताया था और यह सच भी है लेकिन यह रशिया धरती का एक देश रशिया नहीं है बल्कि हमारे इस नए घर Enceladus (एंसेलाडस) का एक सेक्टर है।" आदि के दिमाग में सवालों का एक जखीरा उमड़ पड़ा जिनके जवाब वो तुरंत जानना चाह रहा था।


....कहानी जारी रहेगी अध्याय तीन : सच या झूठ में....

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